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mata laxmi ki kahani

श्री लक्ष्मी

इसी दिन समुद्र मंथन के समय क्षीर सागर से लक्ष्मी जी प्रकट हुई थीं और भगवान विष्णु को अपना पति स्वीकार किया था। कथा इस प्रकार है

एक बार भगवान शंकर के अंशभूत महर्षि दुर्वासा पृथ्वी पर भ्रमण कर रहे थे। घूमत-घूमते वे एक मनोहर वन में गए। वहाँ एक विद्याधर सुंदरी हाथ में पारिजात पुष्पों की माला लिए खड़ी थी, वह माला दिव्य पुष्पों की बनी थी। उसकी दिव्य गंध से समस्त वन-प्रांत सुवासित हो रहा था। दुर्वासा ने विद्याधरी से वह मनोहर माला माँगी। विद्याधरी ने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम करके वह माला दे दी। माला लेकर उन्मत्त वेषधारी मुनि ने अपने मस्तक पर डाल ली और पुनः पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे।

इसी समय मुनि को देवराज इंद्र दिखाई दिए, जो मतवाले ऐरावत पर चढ़कर आ रहे थे। उनके साथ बहुत-से देवता भी थे। मुनि ने अपने मस्तक पर पड़ी माला उतार कर हाथ में ले ली। उसके ऊपर भौरे गुंजार कर रहे थे। जब देवराज समीप आए तो दुर्वासा ने पागलों की तरह वह माला उनके ऊपर फेंक दी। देवराज ने उसे ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया। ऐरावत ने उसकी तीव्र गंध से आकर्षित हो सूँड से माला उतार ली और सूँघकर पृथ्वी पर फेंक दी। यह देख दुर्वासा क्रोध से जल उठे और देवराज इंद्र से इस प्रकार बोले, ''अरे ओ इंद्र! ऐश्वर्य के घमंड से तेरा ह्रदय दूषित हो गया है। तुझ पर जड़ता छा रही है, तभी तो मेरी दी हुई माला का तूने आदर नहीं किया है। वह माला नहीं, श्री लक्ष्मी जी का धाम थी। माला लेकर तूने प्रणाम तक नहीं किया। इसलिए तेरे अधिकार में स्थित तीनों लोकों की लक्ष्मी शीघ्र ही अदृश्य हो जाएगी।'' यह शाप सुनकर देवराज इंद्र घबरा गए और तुरंत ही ऐरावत से उतर कर मुनि के चरणों में पड़ गए। उन्होंने दुर्वासा को प्रसन्न करने की लाख चेष्टाएँ कीं, किंतु महर्षि टस-से-मस न हुए। उल्टे इंद्र को फटकार कर वहाँ से चल दिए। इंद्र भी ऐरावत पर सवार हो अमरावती को लौट गए। तबसे तीनों लोकों की लक्ष्मी नष्ट हो गई। इस प्रकार त्रिलोकी के श्रीहीन एवं सत्वरहित हो जाने पर दानवों ने देवताओं पर चढ़ाई कर दी। देवताओं में अब उत्साह कहाँ रह गया था? सबने हार मान ली। फिर सभी देवता ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्माजी ने उन्हें भगवान विष्णु की शरण में जाने की सलाह दी तथा सबके साथ वे स्वयं भी क्षीरसागर के उत्तर तट पर गए। वहाँ पहुँच कर ब्रह्मा आदि देवताओं ने बड़ी भक्ति से भगवान विष्णु का स्तवन किया। भगवान प्रसन्न होकर देवताओं के सम्मुख प्रकट हुए। उनका अनुपम तेजस्वी मंगलमय विग्रह देखकर देवताओं ने पुनः स्तवन किया, तत्पश्चात भगवान ने उन्हें क्षीरसागर को मथने की सलाह दी और कहा, ''इससे अमृत प्रकट होगा। उसके पान करने से तुम सब लोग अजर-अमर हो जाओगे, किंतु यह कार्य है बहुत दुष्कर अतः तुम्हें दैत्यों को भी अपना साथी बना लेना चाहिए। मैं तो तुम्हारी सहायता करूँगा ही...।''

भगवान की आज्ञा पाकर देवगण दैत्यों से संधि करके अमृत-प्राप्ति के लिए प्रयास करने लगे। वे भाँति-भाँति की औषधियाँ लाएँ और उन्हें क्षीरसागर में छोड़ दिया, फिर मंदराचल पर्वत को मथानी और वासुकि नागराज को नेती (रस्सी) बनाकर बड़े वेग से समुद्र मंथन का कार्य आरंभ किया। भगवान ने वासुकि की पूँछ की ओऱ देवताओं को और मुख की ओर दैत्यों को लगाया। मंथन करते समय वासुकि की निःश्वासाग्नि से झुलसकर सभी दैत्य निस्तेज हो गए और उसी निःश्वास वायु से विक्षिप्त होकर बादल वासुकि की पूँछ की ओर बरसते थे, जिससे देवताओं की शक्ति बढ़ती गई।

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